बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी पंजाबी साहित्यकार थीं “अमृता प्रीतम”

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अमृता प्रीतम जीवित होती तो 103 साल की होतीं।उनके जन्मदिन के अवसर पर हम उनके जीवन का सिंहावलोकन करेंगे और जानेंगे की “पिंजर” की लेखिका ने देश-विभाजन एंव उसकी पीडा को कैसे झेला।उनके ऊपर विभाजन के दुष्प्रभावों ने कितना असर डाला।एक लेखक के तौर पर मैंने उनकी किताबों को पढ़कर ये महसूस किया कि उनके लेखन में बंटवारे का दर्द साफ झलकता है।विभाजन के समय दोनों ओर की स्त्रियों के ऊपर अत्याचार का ऐसा मार्मिक चित्रण और कहीं नहीं दिखता।

अमृता प्रीतम का जन्म अविभाजित भारत के गुजरांवाला शहर जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है,सन् 31 अगस्त,1919 में हुआ था।उनके पिता स्कूल मास्टर थे और एक संवेदनशील कवि थे।पिता की कविता पढ़कर वो बडी हुईं और उनकी कविता में उसका असर भी दिखता है।एक साक्षात्कार में उन्होंने ये स्वीकार किया था कि पिता की कविता उन्हें हमेशा अच्छा लिखने की प्रेरणा देती है।अमृता जब महज 11 वर्ष की थीं तब उनकी माता का अकस्मात देहांत हो गया।माता की मृत्यु के बाद वो पूरी तरह नास्तिक हो गई थीं।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के स्कूलों में हुई।बचपन से हीं उनकी रूचि लेखन में थी और वो पंजाबी भाषा में लिखती थीं।उन्होंने अपने लेख और कविता में जाति-धर्म की बात करनेवालों को काफी लताडा।उन्होंने अपनी आत्मकथा “रसीदी टिकट” में लिखा है की उनकी दादी मुसलमानों के खाने के लिए अलग से बर्तन रखती थीं।उन्होंने इसका कडा विरोध किया था।पिताजी उनसे सहमत तो थे मगर दादी के सामने विरोध नहीं किया।
अपनी आत्मकथा में अमृता प्रीतम लिखती हैं कि उनका विवाह 16 साल की उम्र में माँ-पिताजी द्वारा तय किये लड़के से हो गया।पति भी लिखते-पढ़ते थे और एक अखबार में संपादक थे।
विभाजन के समय जब दंगा-फसाद अपने चरम पर था उन्हें लाहौर में अपना सब कुछ छोड़कर दिल्ली आना पडा था।उस समय वह गर्भवती थी और बडी मुश्किल से भारत आईं थीं।कहते हैं कि उनकी उनके शौहर से कभी बनी नहीं।वो आजाद ख्याल की महिला थीं जबकि उनके पति अंतरमुखी स्वभाव के थे।रोज कलह से ऊबकर दोनों ने सहमति से तलाक ले लिया।
पति से तलाक के बाद उनकी जिंदगी में साहिर लुधियानवी की एंट्री होती है।वो अपनी आत्मकथा “रसीदी टिकट” में साहिर से पहली रूमानी मुलाकात पर लिखती हैं कि “मुझे नहीं पता कि ये उनके शब्दों का जादू था या फिर उनकी एक शांत नजर,लेकिन मैं पूरी तरह से उनकी गिरफ्त में हो गयी।”वो आगे लिखती हैं,”एक बार मुझे पेपर और पेन देकर फोटो खिंचवाने के लिए पोज देने के लिए कहा गया।जब मैंनें बाद में पेपर देखा तो पाया कि मैंनें अचेत मन से पूरे कागज पर साहिर साहिर लिख दिया है।”
अमृता प्रीतम ने साहिर से अपनी मोहब्बत को कभी छूपाया नहीं था।वो साहिर लुधियानवी पर हमेशा खुलकर बात करती थीं।वो मानती थीं कि साहिर भी उनसे बराबर की मोहब्बत करते थे।दोनों का ये रिश्ता लंबे समय तक चला मगर सन् 1950 में दोनों के रिश्तों में तब खटास आई जब साहिर का नाम किसी और के साथ जुडा।”ब्लिट्ज” मैगजीन ने साहिर लुधियानवी के किसी अन्य महिला के साथ रिश्तों की खबर प्रमुखता के साथ छापी थी।
साहिर की बेवफाई के बाद उनकी जिंदगी में चित्रकार इमरोज़ आए जो अमृता को उनके अतीत के साथ अपनाया।अमृता अपनी जिंदगी के अंतिम चालीस साल इमरोज़ के साथ हीं “लिव-इन” पार्टनर के रूप में रहीं।शायद भारत में लिव-इन रिलेशन का ये पहला केस था जो ताउम्र कायम रहा।
अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया,जिनमें प्रमुख हैं 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार,1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार,1988 में बल्गारिया वैरोवा पुरस्कार और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार।वे पहली महिला थीं जिन्हें 1969 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया।
अमृता प्रीतम ने बहुत से उपन्यास लिखें हैं जिनमें पाँच बरस लंबी सड़क,पिंजर,अदालत,कोरे कागज,उन्चास दिन,सागर और सीपियाँ,नागमणि,रंग का पत्ता,दिल्ली की गलियां,तेरहवां सूरज महत्वपूर्ण है।आपकी आत्मकथा रसीदी टिकट को बडी सराहना मिली थी।आपने जो संस्मरण लिखा उसका नाम कच्चा आँगन और एक थी सारा है।
आपकी लिखी “पिंजर” को सबसे बेहतरीन रचना माना जाता है।आपने पिंजर सन् 1950 में लिखा।इस उपन्यास में उन्होंने विभाजन के दौरान महिलाओं की दशा को बखूबी उकेरा है।इस उपन्यास में उन्होंने एक हिंदू लड़की पुरो की कहानी का मार्मिक चित्रण किया है।उपन्यास की नायिका पुरो जिसकी सगाई रामचंद्र नामक सुंदर युवक से हो जाती है और हर लड़की की तरह वह भी अपने होने वाले पति से मिलने की राह देखने लगती है,तभी उसका अपहरण एक मुस्लिम युवक द्वारा कर लिया जाता है,जो उसके परिवार का सताता हुआ होता है।
मुस्लिम युवक बलपूर्वक उससे निकाह कर लेता है और उसके साथ संबंध बनाता है।इसी बीच मौका देखकर वह वहाँ से भागकर अपने घर पहुंच जाती है मगर उसका परिवार उसे अपनाने से इंकार कर देता है।
निकाह के थोडे हीं दिन बाद वह गर्भवती हो जाती है और उसे लगता है कि उसकी कोख में पाप पल रहा है।इसी बीच दंगों में भड़की हिंसा के दौरान एक और लड़की अगवा कर ली जाती है।लेकिन पूरो अपनी जान जोखिम में डाल उस लड़की को एक और पूरो बनने से बचा लेती है और सही सलामत उस लड़की को उसके पति को सौंपती है जो उसका सगा भाई था।तब उसके मन में ये अलफाज निकलते हैं,”कोई भी लड़की,हिंदू हो या मुस्लिम,अपने ठिकाने पहुंच गई तो समझना कि पूरो की आत्मा ठिकाने पहुंच गई।”
अमृता प्रीतम ने बंटवारे पर एक कविता लिखी थी जो दोनों तरफ बेहद पसंद किया गया।उसकी लाइनें थी “अज्ज आखां वारिस शाह नू” जिसमें सरहद के दोनों ओर उजडे लोगों की टीस को एक सा बयां करती है कि दर्द की कोई सरहद नहीं होती।ये कविता पंजाबी में लिखी गई है जिसमें अमृता प्रीतम कहती हैं कि “जब पंजाब में एक बेटी रोई थी तो वारिस शाह तूने उसकी दास्ताँ लिखी थी,हीर की दास्तान।आज तो लाखों बेटियां रो रही हैं,आज तुम कब्र में से बोलो…उठो अपना पंजाब देखो जहाँ लाशें बिछी हुईं हैं,चनाब दरिया में अब पानी नहीं खून बहता है।हीर को जहर देनेवाला तो एक चाचा कैदों था,अब तो सब चाचा कैदों हो गए।”
अमृता प्रीतम की ये कविता बंटवारे के बहुत दिनों बाद तक वारिस शाह के मजार पर गायी जाती थी।पाकिस्तान में ये कविता अमर है और इसको लिखकर अमृता प्रीतम ने अपना नाम वारिस शाह के समकक्ष कर लिया।ये वही वारिस शाह हैं जिन्होंने हीर-रांझे की दास्तान कविता के रूप में लिखी थी जो पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में हर घर घर में गाई जाती है।
अमृता प्रीतम 20 वीं शताब्दी की सबसे बड़ी पंजाबी कवि
मानी जाती हैं मगर उनके आलोचक सरदार खुशवंत सिंह ऐसा नहीं मानते।पत्रिका “आउटलुक” के अपने मशहूर लेख में खुशवंत सिंह ने 2005 में लिखा था,”उनकी कहानियों के किरदार कभी जीवंत होकर सामने नहीं आते।अमृता की कविता “अज्ज आखां वारिस शाह नूं” ने उन्हें भारत और पाकिस्तान में अमर कर दिया।बस यही दस पंक्तियां हैं जो उन्हें अमर बनाती है।मैंनै उनके उपन्यास पिंजर का अंग्रेजी में अनुवाद किया था और उनसे गुजारिश की थी कि बदले में वो अपनी जिंदगी और साहिर के बारे में मुझे विस्तार से बताएं।उनकी कहानी सुनकर मैं काफी निराश हुआ।मैंनै कहा था कि ये सब तो एक टिकट भर पर लिखा जा सकता है।जिस तरह उन्होंने साहित्य अकादमी जीता वो भी निराशाजनक किस्सा था।”
ये बातें खुशवंत सिंह नहीं बल्कि उनके अहम ने लिखा था।जो पिंजर दोनों देशों में बेहद पसंद की गई,उसे एक आलोचक की आलोचना कितनी प्रभावित कर सकती है ये समझना होगा।खुशवंत सिंह भी पंजाब से जुड़े हुए थे और लगता है वो अमृता प्रीतम से इर्ष्या करते थे।
अमृता प्रीतम 86 वर्ष की उम्र तक जीईं और 31 अक्टूबर 2005 में उनकी मृत्यु हो गई।अमृता प्रीतम जैसे साहित्यकार रोज रोज पैदा नहीं होते।उनके जाने से एक युग का अंत हुआ है।अब वो हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनका साहित्य हमेशा हम सबके बीच जिंदा रहेगा और हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा

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