एक सेनापति के गद्दारी के कारण भारत को फिरंगियों की 200 वर्षों की गुलामी झेलनी पड़ी थी
17 वीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार के लिए पैर पसारने शुरू कर दिया था।थोडे हीं दिनों में ईस्ट इंडिया कंपनी इतनी मजबूत हो गई कि उन्होंने विभिन्न रियासतों को अपनी शर्तों पर चलाना शुरू कर दिया,जिस रियासत के हुक्मरान उनकी बात नहीं मानते उन्हें अपदस्थ कर दिया जाता।इसी कवायद में उन्होंने अपना ध्यान बंगाल की तरफ लगाया।लार्ड क्लाउव ने बंगाल के ताकतवर नबाब मिर्जा मोहम्मद सिराजुद्दौला को एक संदेशा भेजा जिसका मजमून ये था कि ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में बेहद कम टैक्स पर काम करने की अनुमति दी जाए।सिराजुद्दौला ने अपने बडे-बुजुर्गों से फिरंगियों की फितरत को समझ लिया था और उसने लार्ड क्लाउव के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
गौरतलब है कि सिराजुद्दौला अपने नाना के इंतकाल के बाद लगभग 23 वर्ष की आयु में बंगाल का नवाब बना था।सिराजुद्दौला के ताजपोशी से बहुत लोग खुश नहीं थे।उसकी खाला ने तो लगभग विद्रोह सा कर दिया था मगर सिराजुद्दौला ने उस विद्रोह को सुलगने से पहले हीं समाप्त कर दिया।उन्होंने प्रशासन में कई बदलाव किये,अपने नजदीकी लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जो उस परिस्थिति में बेहद जरूरी भी था।सबसे बड़ा बदलाव उसने ये किया कि मीर जाफर जो वर्षों से सेनापति बने रहे थे उनकी जगह मीर मदान को प्रधान सेनापति बना दिया, जो मीर जाफर से कनिष्ठ थे।यह निर्णय भारत में अंग्रेजी हुकूमत का आधार बना।
मीर जाफर इस निर्णय को दिल से कभी स्वीकार नहीं कर पाया।अब उसकी महत्वाकांक्षा बंगाल के नवाब बनने की हो चली थी मगर वो उचित अवसर के तलाश में चुपचाप बैठा था।लार्ड क्लाउव भी बेहद शातिर सेनापति थे।उन्होंने सिराजुद्दौला के दरबार में विभीषण की खोज के लिए बहुत से गुप्तचर लगा दिये थे।थोडे हीं दिनों में उसके गुप्तचरों ने विभीषण को पहचान लिया और वह “मीर जाफर” था जो हर हाल में बंगाल का नवाब बनने की महत्वकांक्षा को पाल रखा था।लार्ड क्लाउव ने उससे संपर्क किया और डील पक्की हो गई।
ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से युद्ध का ऐलान कर दिया गया और एक भारी सेना युद्ध क्षेत्र में भेज दी गई।सिराजुद्दौला ने भी एक टुकड़ी युद्ध के लिए भेजा।वह पूरी फौज एक जगह नहीं भेज सकता था क्योंकि उसे उत्तर की तरफ से अफगानी शासक अहमद शाह दुर्रानी तो पश्चिम से शक्तिशाली मराठों का खतरा था।दोनों सेनाएं के बीच प्लासी के मैदान में भयंकर युद्ध शुरू हो गया।23 जून को सिराजुद्दौला का दाहिना हाथ सेनापति मीर मदान युद्ध में मारा गया।जाहिर है सेनापति के मौत से सेना के मनोबल पर असर पडा।सिराजुद्दौला ने आगे की रणनीति तैयार करने के लिए मीर जाफर को बुलाया।मीर जाफर ने सिराजुद्दौला को कहा कि तुरंत युद्ध रोक दें,नहीं तो हमारी पराजय निश्चित है।
रण में अनुभवहीन सिराजुद्दौला ने मीर जाफर की सलाह मानते हुए युद्ध को रोक दिया और सेना कैंप में लौटने लगी।युद्धनीति के अनुसार जब एक फौज संघर्ष विराम कर देती थी तो दूसरे सैनिक उस पर हमला नहीं करते थे मगर तब तक मीर जाफर ने लार्ड क्लाउव को पूरी ताकत से हमला करने को कह चुका था।।ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी पूरी ताकत से कैंप लौट रहे सैनिकों पर हमला किया, जो युद्धनीति के विरुद्ध था।चारों तरफ से हुए इस हमलों ने सिराजुद्दौला के फौज को तितरबितर कर दिया।मौत सामने देखकर सिराजुद्दौला रणक्षेत्र से भाग खडा हुआ।
मीर जाफर को सिराजुद्दौला के साथ विश्वासघात करने का इनाम भी मिला,उसे बंगाल का नवाब घोषित कर दिया गया मगर उसे बंगाल पर शासन करने से ज्यादा उसकी गद्दारी के लिए जाना जाता है।इतिहास उसे गद्दार, घर का भेदी, विश्वसघाती आदि बहुत से नामों से याद करती है।बंगाल का नवाब बनते हीं उसने तुरंत इनाम के तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उडीसा में मुफ्त में व्यापार करने का अधिकार तो दे हीं दिया साथ में कलकत्ता के समीप 24 परगना की जमींदारी भी कंपनी के हवाले कर दी।उसने ईस्ट इंडिया कंपनी की ये भी मांग को स्वीकार कर लिया कि सिराजुद्दौला ये युद्ध के दौरान कंपनी का 17 करोड़ 70 लाख का नुकसान हुआ है।उसने उस नुकसान की भरपाई तुरंत कर दिया।
प्लासी की लडाई से भागकर नवाब सिराजुद्दौला ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह सका था।उन्हें पटना में मीर जाफर के सिपाहियों ने पकड़ लिया और बंदी बनाकर मुर्शिदाबाद लाया गया।मीर जाफर के बेटे मीर मीरन के आदेश पर सिराजुद्दौला को 02 जुलाई,1757 को फाँसी पर लटका दिया गया।इतना हीं नहीं उसके मृत शरीर को हाथी पर चढ़ाकर पूरे मुर्शिदाबाद शहर में घुमाया गया था।
मीर जाफर अब हर तरफ से निश्चिंत था।सिराजुद्दौला मारा गया था और ईस्ट इंडिया कंपनी उसके साथ थी,उसे और क्या चाहिए था।मगर ये भ्रम थोडे हीं दिनों टूट गया।फिरंगियों ने उसका इस्तेमाल जिस मकसद के लिए किया था वो पूरा हो चुका था।लार्ड क्लाउव के लिए मीर जाफर एक मोहरा भर था।
1760 में मीर जाफर के संबंध ईस्ट इंडिया कंपनी से बेहद खराब हो चुके थे।फिरंगी अपने फायदे के मुताबिक राज चलाना चाहते थे, जो अब मीर जाफर को नागवार गुजर रहा था।आपसी मनमुटाव इतने बढ़ गए कि मीरजाफर ने गद्दी छोड दी।अंग्रेजों की सहमति से मीर जाफर के दामाद मीर कासिम गद्दी पर बैठा।शुरुआत में तो उसने भी ईस्ट इंडिया कंपनी का खूब सहयोग किया,मगर थोडे ही दिनों बाद उसने भी बागी रूख अख्तियार कर लिया था।ये कंपनी को मंजूर नहीं था और उसने मीर कासिम को गद्दी से उतारकर फिर से मीर जाफर को नवाब बना दिया।
मीर कासिम ने तीन बार ईस्ट इंडिया कंपनी से युद्ध किया मगर हर बार वो नाकाम ही हुआ।
फरवरी,1765 को नवाब मीर जाफर की मृत्यु हो गई और उसके बाद उसका दूसरा बेटा निजामुद्दौला नवाब बना मगर वो शासन-सत्ता संभालने में बेहद अक्षम साबित हुआ था,परिणामस्वरूप कंपनी ने मुर्शिदाबाद का शासन अपने कब्जे में ले लिया।
अगर हम अतीत का मूल्यांकन इस परिपेक्ष्य में करें तो हम पाएंगे कि अगर मीर जाफर ने नवाब सिराजुद्दौला से गद्दारी नहीं की होती तो शायद इतिहास कुछ अलग होता।फिरंगियों ने इसी गद्दारी और विश्वासघात के कारण देश पर 200 वर्षों तक शासन किया था।
आज के हीं दिन गद्दार मीर जाफर ने बंगाल, बिहार और उडीसा के नवाब के रूप में गद्दी संभाली थी।
अजय श्रीवास्तव की कलम से