इस दिन में यहूदी राष्ट्र “इजरायल” ने संयुक्त अरब सेना का तोडा था “गुरुर”

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नई दिल्ली: अरब-इजरायल युद्ध पर चर्चा करने से पहले उसके सबसे बडे नायक या खलनायक आप जो भी कह सकते हैं,के बारे में बात कर लें जिसके फितूर के कारण इजरायल ने मिस्र से गाजापट्टी और सिनाई प्रायद्वीप, जार्डन से वेस्टबैंक और पूर्वी येरुशलम और सीरिया से गोलान हाइट की पहाडियों को छीन लिया था।छह दिनों तक चली इस लडाई में संयुक्त अरब की सेना बुरी तरह पराजित हुई और उसे भारी जान-माल का सामना करना पडा था।छह दिनों में हीं इजरायली सेना ने अरब सेना को नेस्तनाबूद कर दिया और उसे रणभूमि छोड़कर भागने पर मजबूर होना पडा था।
05 जून 1967 को शुरू हुए युद्ध के नायक थे मिस्र के राष्ट्रपति कर्नल जमाल अब्दुल नासिर।साल 1966 में नासिर मिस्र के राष्ट्रपति बने।इसी साल उन्होंने ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल की परवाह न करते हुए स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया और इस तरह वो अरब देशों के हीरो बन गए।उस समय ये आसान नहीं था।ब्रिटेन और फ्रांस की गिनती बेहद ताकतवर देशों में की जाती थी।
स्वेज नहर के सफल राष्ट्रीयकरण के बाद अरब जगत में नासिर की गिनती मजबूत एंव साहसी राष्ट्रपति के रूप में होने लगी थी।
नासिर मानते थे कि अगर वे युद्ध में इजरायल को परास्त कर देते हैं तो संपूर्ण अरब जगत के मसीहा हो जाएंगे।सबसे पहले उन्होंने अपने देश में राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाने के लिए तरह तरह के कार्यक्रम को शुरू किया।नासिर इस बात से आश्वस्त थे कि मिस्र एक प्राचीन देश है और इजरायल उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
नासिर ने इजरायल से युद्ध के लिए सभी अरब जगत को मिलकर लड़ने का आह्वान किया।नासिर को पता था कि उनके पास एक मजबूत वायुसेना है मगर थलसेना कमजोर है।इसी कमजोरी को छूपाने के लिए उन्होंने अरब जगत से मिलकर इजरायल से युद्ध करने की योजना बनाई थी।
इजरायल जानता था कि संयुक्त अरब की सेना से मुकाबला करना आसान नहीं है, इस वजह से उन्होंने अपनी युद्ध रणनीति में संशोधन कर पहले आक्रमण का निर्णय लिया।तेल अबीब में अमेरिका के राजदूत को बुलाकर ये जानकारी दे दी गई।05 जून 1967 को इजरायली वायुसेना ने जार्डन के आर्मी बेस पर मौजूद लडाकू विमानों पर तबातोड़ हमले शुरू कर दिये।जब तक संयुक्त अरब की सेना तैयार होती उसके लगभग 400 लडाकू विमानों को भारी बमबारी से जमीन पर हीं नष्ट कर दिया गया।इनमें मिस्र के 300 विमान और सीरिया के 50 विमान शामिल थे।लडाई के पहले हीं दिन इजरायल ने भारी बढ़त ले ली थी।लडाकू विमानों के नष्ट होने से अरब सेना की ताकत बेहद क्षीण हो गई थी और वह इस युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ।
संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर इजरायल ने 11 जून 1967 को युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर किये और लडाई खत्म हो गई।लडाई के परिणाम स्वरूप इजरायल ने मिस्र से गाजापट्टी और सिनाई प्रायद्वीप, जार्डन से वेस्ट बैंक और पूर्वी येरुशलम और सीरिया से गोलान हाइट की पहाडियों को छीन लिया।इस लडाई ने मिस्र के राष्ट्रपति नासिर और अरब जगत का गुरूर चकनाचूर किया और अंतरराष्ट्रीय जगत में इजरायल की प्रतिष्ठा बढ़ी।तीन तरफ से अरब मूल्कों से घिरे इजरायल ने उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने आप को इतना मजबूत कर लिया है कि आज कोई भी राष्ट्र उसे आँख नहीं दिखा सकता।
यहूदी देश इजरायल के उदय की कहानी बेहद कष्टकारी है।यहूदी राष्ट्र बनने के लिए इजरायल को कई सौ साल का इंतजार करना पड़ा था।यहूदियों का मानना है कि अब्राहम
यहूदी, मुसलमान और ईसाई तीनों धर्मों के पितामह हैं।अब्राहम का समय ईसा से लगभग दो हजार पूर्व का है।माना जाता है कि अब्राहम के पोते याकूब का हीं दूसरा नाम इजरायल है।याकूब ने यहूदियों की 12 जातियों को मिलाकर एक किया और इन सब जातियों का सम्मलित राष्ट्र इजरायल कहलाने लगा।इसी बीच वहां ऐसी परिस्थिति बनी कि यहूदियों की राजनीतिक स्वाधीनता का अंत हो गया।दरअसल सन् 66 ई.पू. में प्रथम यहूदी-रोम युद्ध के बाद रोम के जनरल पांपे ने जेरूसलम के साथ साथ सारे देश पर अधिकार कर लिया।
सैकड़ों साल क इजरायल पर रोम का कब्जा रहा मगर अब मध्य एशिया में एक और शक्ति का उदय हो रहा था।ये थी इस्लाम को मानने वाली खलीफा साम्राज्य।सन् 636 ई. में खलीफा उमर की सेनाओं ने रोम की सेनाओं को रौंद डाला और इजरायल पर कब्जा कर लिया।इजरायल पर मुसलमानों का कब्जा सन् 1099 ई. तक रहा।इसके बाद बेहद ताकतवर हो चुके ईसाई शक्तियों ने इजरायल पर कब्जा कर लिया।थोडे हीं सालों बाद एकबार फिर मुस्लिम शासकों ने इजरायल पर कब्जा कर लिया।
ये वो समय था जब ईसाइयों और मुसलमानों में पवित्र येरूशलेम पर कब्जा के लिए अनेक युद्ध हुए।इस लडाई को धर्मयुद्ध या क्रूसेड के नाम से जाना जाता है।इसके बाद 19 वीं शताब्दी तक इजरायल पर मुस्लिम शासकों का कब्जा रहा।इजरायल कभी मिस्र के कब्जे में रहा तो कभी तुर्की शासन के अधीन।इजरायल के आजादी के समय इजरायल पर तुर्की शासन था जिसे ओटोमन साम्राज्य कहा जाता था।
उन्नसवीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य अपने चरम पर था और ओटोमन साम्राज्य बेहद कमजोर हो चला था।उन्नीसवीं सदी के मध्य से हीं इजरायल के रूप में यहूदी मातृभूमि की मांग करने लगे थे,जिसे “जिओनवाद” कहते हैं।ये वो दौर था जब यूरोप में सब जगह यहूदियों पर अत्याचार हो रहे थे।निरंतर होते अत्याचारों के कारण यूरोप के कई हिस्सों में रहने वाले यहूदी विस्थापित होकर फिलिस्तीन आने लगे।यहूदी एक ऐसे देश की कल्पना कर रहे थे, जहाँ दूनिया के तमाम देशों से आए हुए यहूदी निर्णायक बहुमत में हों।
इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया।इजरायल पर कब्जा करने वाला देश तुर्की विश्वयुद्ध के समय मित्र राष्ट्रों के खिलाफ वाले गठबंधन में शामिल हो गया जिसमें जर्मनी,आस्ट्रेया और हंगरी शामिल थे।युद्ध के समय हीं तुर्की के शासकों ने फिलिस्तीन से उन सभी यहूदियों को खदेड़ना शुरू कर दिया, जो रूस और यूरोप के अन्य देशों से आए थे।विरोधी गुट को कमजोर करने के लिए इंग्लैंड ने अरब और फिलिस्तीन को तुर्की शासन से मुक्ति दिलाने के लिए प्रतिबद्धता जताई,बशर्ते कि अरब देश और फिलिस्तीन तुर्की के विरोध में मिस्र सेनाओं के साथ आ जाएं।जब युद्ध में पडला भारी होने लगा तो ब्रिटेन और फ्रांस ने एक गुपचुप समझौता किया, इसके अनुसार तय हुआ कि जार्डन, इराक और फिलिस्तीन ब्रिटेन को मिलेगा।
सन् 1917 में ब्रिटेन के विदेश सचिव लार्ड बेलफोर और यहूदी नेता लार्ड रोथसचाइल्ड के बीच एक पत्र व्यवहार हुआ,जिसमें लार्ड बेलफोर ने ब्रिटेन की ओर से ये आश्वासन दिया कि फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि के रूप में बनाने के लिए वो प्रतिबद्ध है।ब्रिटेन के इस निर्णय का तगडा विरोध हुआ।विरोध जायज भी था क्योंकि उस समय मुस्लिमों की आबादी फिलिस्तीन की कुल आबादी की तीन चौथाई से भी ज्यादा थी।इस समझौते के तहत इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया गया।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद सन् 1920 को इटली में सैन रेमो कान्फ्रेंस हुई, जिसमें मित्र राष्ट्रों और अमेरिका ने मिलकर ब्रिटेन को अस्थायी जनादेश दिया कि ब्रिटेन फलीस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि के रूप में विकसित कराए।फैसला ये भी हुआ कि फिलिस्तीन का स्थानीय प्रशासन भी ब्रिटेन हीं देखेगा।यहूदी इस बात से आशंकित थे कि फिलीस्तीन में मुसलमानों की आबादी के कारण वे कहीं अल्पसंख्यक बनकर नहीं रह जाएं।अरबी लोगों को भी यह समझौता मंजूर नहीं था क्योंकि वह किसी भी हालत में यहूदियों के साथ सत्ता साझा नहीं करना चाहते थे।
तात्कालिक परिस्थितियों को देखकर ब्रिटेन ने एक बडा फैसला लिया,उसे जो जमीन संभालने के लिए मिली थी उसके दो टुकडे कर दिये।बडा हिस्सा जार्डन बना और छोटा हिस्सा फिलिस्तीन।आपको बता दें दवाब में आकर ब्रिटेन ने यहूदियों के साथ विश्वासघात किया था।जो जमीन उन्हें मिलनी चाहिए थी उसे दूसरे को दे दिया गया।ब्रिटिश शासन के विरूद्ध यहूदियों में बडा रोष जाग्रत हुआ और वे ब्रिटेन का विरोध करने लगे थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज मध्यम होने लगा था।अब सारी शक्तियाँ अमेरिका के इर्द गिर्द घूमती रहती थीं।अमेरिका चाहता था कि ब्रिटेन फिलिस्तीन में यहूदियों के पुनर्वास के लिए काम करे।चारों तरफ से घिरे ब्रिटेन ने इस मामले से अपने को अलग कर लिया।उसी समय संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी और ये मामला यूनाइटेड नेशंस के हाथ में आ गया।
29 नवंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र ने फिलीस्तीन को दो भागों में बाँट दिया।एक अरब राज्य और दूसरा यहूदी राज्य इजरायल बना।जेरूसलम को अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन के अंतर्गत रखे जाने की घोषणा कर दी गई।यूनाइटेड नेशंस के इस फैसले को अरब राष्ट्रों ने मानने से इंकार कर दिया।
दोनों पक्षों में भयंकर मारकाट शुरू हो गई और सन् 1948 के आते आते ब्रिटेन ने वहां से अपनी सेना बुला ली जो यहूदियों के लिए बेहद फायदेमंद साबित हुआ।एक दिन यहूदियों ने इजरायल के रूप में एक स्वत्रंत देश की घोषणा कर दी, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक देश के रूप में मान्यता दे दी।
फलस्तीनियों ने साल 1948 की इस घटना को “अल-नक्बा” या “विनाश” का नाम दिया।तब से 1967 के युद्ध तक अरब देशों और इजरायल में हमेशा तनातनी बनी रहती थी मगर 1967 के छह दिनों तक चले युद्ध ने अरब देशों के गुरूर को तोडकर रख दिया था।इस युद्ध ने यहूदी राष्ट्र इजरायल की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगा दिये और इसके बाद तो इजरायल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।आज कोई भी अरब राष्ट्र इजरायल पर हमला करने की हिमाकत नहीं कर सकता है क्योंकि वो उसके बाद का अंजाम अच्छी तरह से जानता है।

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