पूर्व प्रधानमंत्री स्व.इंदिरा गांधी का गूंगी गुड़िया” से “आयरन लेड़ी” बनने तक का सफर
नई दिल्ली:देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपनी प्रिय पुत्री “इंदू” को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने प्रयास भी शुरू कर दिया था, मगर हृदयाघात से मौत होने के बाद इंदिरा गांधी बिल्कुल अकेली पड़ गईं थीं।1967 में इंदिरा गांधी कांग्रेस के सीनियर लीड़र के न चाहने पर भी प्रधानमंत्री बन गई थीं।कांग्रेस के भीतर गुटबाजी चरम पर थी।सिंडिकेट के लोग इंदिरा को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे।सिंडिकेट में सीनियर लीडर थे जो सरकार को अपने हिसाब से चलाना चाहते थे मगर ये इंदिरा को गवारा न था।सिंडिकेट की काट के लिए इंदिरा गांधी ने पी.एन.हक्सर को लंदन से बुला लिया जो उस समय ब्रिटेन में भारत के डिप्टी कमिश्नर हुआ करते थे।हक्सर को इंदिरा गांधी ने अपना प्रधान सचिव नियुक्त कर लिया।
ताकतवर सिंडिकेट से मुकाबला करने के लिए इंदिरा गांधी ने अपनी टीम में पाँच विश्वस्त लोगों को जोडा जो “पाँच पांड़व” के नाम से विख्यात हुए।उनमें विदेश सेवा के अफसर त्रिलोकी नाथ कौल,दुर्गा प्रसाद धर,अर्थशास्त्री पृथ्वी नाथ धर,भारतीय पुलिस सेवा के अफसर रामेश्वर नाथ काउ और भारतीय विदेश सेवा के पीएन हक्सर।ये पाँचों “कश्मीरी ब्राह्मण” थे।इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव पीएन हक्सर इनके बाँस हुआ करते थे।
ये पाँचों इंदिरा गांधी के साथ साये की तरह लगे रहते थे और इंदिरा गांधी बिना इनसे सलाह किये एक कदम भी चलती नहीं थीं।
इंदिरा गांधी को मजबूत करने के लिए पांडवों ने एक दस सूत्रीय कार्यक्रम बनाया, जिसे कांग्रेस पार्टी में 1967 में इंदिरा ने पेश किया।इनमें बैंकों का नियंत्रण, पूर्व राजे महाराजे को मिलने वाली वित्तीय लाभ और न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण इसके प्रमुख बिंदु थे।
इंदिरा गांधी द्वारा पेश किया गया “दस सूत्रीय कार्यक्रम” का मसौदा सिंडिकेट को पसंद नहीं आया और उसे पार्टी की शशक्त लाँबी ने ठंड़े बस्ते में डाल दिया।
इंदिरा गांधी समझ गईं थीं कि इनके रहते ये क्रार्यक्रम लागू नहीं हो सकता।
प्रधान सचिव हक्सर ने इंदिरा को सलाह दी कि सिंडिकेट को खत्म करना है तो इस नीजी लड़ाई को विचारधारा की लडाई के तौर पर पेश करना होगा।हक्सर की ये बात इंदिरा को समझ आ गई और उन्होंने एआईसीसी की बंगलौर अधिवेशन में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रख दिया।इंदिरा के वफादार सदस्यों को अधिवेशन से पहले हीं समझा लिया गया था,वो मजबूती के साथ इंदिरा के पीछे खड़े थे।
उन दिनों वित्त मंत्री मोरारजी देसाई थे जो काफी ताकतवर थे।पार्टी और सरकार दोनों पर उनकी पकड थी।कहते तो ये भी हैं कि इंदिरा, मोरारजी देसाई से बेहद खौफजदा रहती थीं।मोरारजी देसाई बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे,तब पाँच पांडवों ने उन्हें मंत्रिमंडल से हटाने की योजना बनाई।
उन दिनों पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर युवा सांसदों का प्रतिनिधित्व किया करते थे, उनसे मोरारजी देसाई के पुत्र कांति देसाई के खिलाफ भष्टाचार के आरोप लगवाए गए।कहते हैं कि चंद्रशेखर और उनके युवा साथियों ने इस तरह का माहौल बना दिया था कि ये लगने लगा था कि कांति देसाई वित्तीय अनियमितता कर कुछ बड़े उद्योग घरानों को फायदा पहुँचा रहे हैं।इंदिरा गांधी लोगों को ये समझाने में सफल रहीं थीं कि मोरारजी देसाई पूंजीवादी सोच रखते हैं और ये सोच सरकार की विचारधारा से मेल नहीं खाती।
इंदिरा गांधी ने शक्तिशाली मोरारजी देसाई का पोर्टफोलियो बदल दिया, लेकिन मोरारजी भाई ने दूसरे मंत्रालय में काम करने से इंकार कर इस्तीफा दे दिया।
19 जुलाई,1969 को एक आर्डिनेंस जारी करके सरकार ने देश के 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।जिस आर्डिनेंस के जरिए ऐसा किया गया वह “बैंकिंग कंपनीज आर्डिनेंस” कहलाया।बाद में इसी नाम से विधेयक पारित हुआ और कानून बन गया।ये इंदिरा गांधी की पहली जीत थी।
उधर,राष्ट्रपति डाँ जाकिर हुसैन की अचानक मौत से इंदिरा गांधी को एक और मौका मिला।सिंडिकेट की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी थे,जो इंदिरा विरोधी खेमे के मजबूत स्तंभ थे।विपक्ष की तरफ से निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी मैदान में थे।इंदिरा गांधी ने फैसला किया कि किसी भी हालत में रेड्डी को हराना है।सिंडिकेट इंदिरा की चाल को समझ गया था उसने इंदिरा को आदेश दिया कि वे सार्वजनिक मंच से रेड्डी को समर्थन देने की घोषणा करें मगर इंदिरा ने कहा कि नेतागण अपनी “अंतरात्मा की आवाज” पर वोटिंग करें।इंदिरा की ये चाल सफल रही और विपक्षी उम्मीदवार वीवी गिरि राष्ट्रपति चुनाव जीत गए।
सिंडिकेट इस हार से बेहद नाराज थी,कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष निजलिंगप्पा और इंदिरा गांधी के संबंध बेहद कटु हो गए थे।12 नवंबर,1969 को कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया।सब कुछ प्लान के हिसाब हो रहा था।इंदिरा गांधी बेहद शक्तिशाली होकर उभरीं थीं,उनकी छवि समाजवादी नेता के रूप में उभरीं थीं।
कांग्रेस का नौजवान धडा़ इंदिरा गांधी के साथ गोलबंद था।विभाजन के बाद इंदिरा गांधी वाला धड़ा कांग्रेस(आर)कहलाया और सिंडिकेट वाला कांग्रेस(ओ)।दिसंबर में दोनों पार्टियों ने अपने अपने अधिवेशन किये।आँल इंडिया कांग्रेस कमेटी के 705 सदस्यों में 429 इंदिरा के साथ थे।इसमें से 220 लोकसभा के सदस्य थे।सरकार बनाने के लिए 45 सदस्यों की जरूरत थी।इंदिरा के आग्रह पर कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना समर्थन दे दिया और फिर सरकार बन गई।यह इंदिरा गांधी और उसकी चौकडी की निर्णायक जीत थी।कुछ हीं दिनों में कांग्रेस(ओ) का नामोनिशां मिट गया और इंदिरा गांधी निर्विवाद रूप से कांग्रेस में स्थापित हो गईं।
एक समय कांग्रेस में बेहद मजबूत “सिंडिकेट” को नेस्तनाबूद करना लगभग असंभव था लेकिन इंदिरा और उसकी टीम ने असंभव को संभव बना दिया।इंदिरा इतनी ताकतवर हो चुकीं थीं कि अपने विशेष सिपहसालार पीएन हक्सर की विदाई से भी उन्हें कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ा।पूर्वी पाकिस्तान को अलग करवाकर उन्होंने बांग्लादेश का निर्माण करवाया जो उनके राजनीतिक जीवन में चार चांद लगा दिया।